# एक गीत -- मौजे #
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तवक़्क़ो न मौजो से
कुछ भी करो
ये तुम से तुम्हारी
हँसी छीन लेंगी ।।
ये मौजे हवाओ से
मजबूर हैं
इधर से उधर तक
यूँ ही घूमती है
मस्ती में आये तो
पग चूम लेती
प्रभावों में आ कर
यूँ ही झूमतीं हैं
न मांझी को खोजो
न साहिल को ढूंढो
ये पैरो तले की
जमीं छीन लेंगी ।।
बहुत तेज रफ़्तार
इनमे बसी है
किसी का ये कुछ भी
नही देखती हैं
छोटा बड़ा हो
या हल्का हो भारी
किसी के भी आंसू
नही पौछती हैं
न मंजिल को आंको
न मंजर को ताको
ये तुम से तुम्हारा
यकीं छीन लेंगी ।।
निहायद हठीली
ये ज़िद। में पली है
सूखे पे अपना
निशां छोड़ती हैं
किनारों से टकरा के
जब लौटती हैं
बादरंगियो से
उन्हें जोड़ती हैं
न इजहार मानो
न पतवार थामो
मकानों से उनके
मकीं छीन लेंगी ।।
◆ सुशीला जोशी
मुजफ़्फ़रनगर
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तवक़्क़ो न मौजो से
कुछ भी करो
ये तुम से तुम्हारी
हँसी छीन लेंगी ।।
ये मौजे हवाओ से
मजबूर हैं
इधर से उधर तक
यूँ ही घूमती है
मस्ती में आये तो
पग चूम लेती
प्रभावों में आ कर
यूँ ही झूमतीं हैं
न मांझी को खोजो
न साहिल को ढूंढो
ये पैरो तले की
जमीं छीन लेंगी ।।
बहुत तेज रफ़्तार
इनमे बसी है
किसी का ये कुछ भी
नही देखती हैं
छोटा बड़ा हो
या हल्का हो भारी
किसी के भी आंसू
नही पौछती हैं
न मंजिल को आंको
न मंजर को ताको
ये तुम से तुम्हारा
यकीं छीन लेंगी ।।
निहायद हठीली
ये ज़िद। में पली है
सूखे पे अपना
निशां छोड़ती हैं
किनारों से टकरा के
जब लौटती हैं
बादरंगियो से
उन्हें जोड़ती हैं
न इजहार मानो
न पतवार थामो
मकानों से उनके
मकीं छीन लेंगी ।।
◆ सुशीला जोशी
मुजफ़्फ़रनगर
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