रोज़ डर डरकर घर आना पड़ता है।
मेरे घर की राह में इक थाना पड़ता है।।
जर्रा जर्रा वज़ूद नज़र आने लगता है।
जब झूठ बात पे झुक जाना पड़ता है।।
मैंने कभी गठरी भारी नही की अपनी।
हसरतों का बोझ खुद उठाना पड़ता है।।
जानता हूँ वो छुप छुपके बहुत रोता है।
जिसे सबके सामने मुसकाना पड़ता है।।
ये भी एक हकीकत है इस दुनिया की।
कभी---कभी खुद से टकराना पड़ता है।।
ऐसी मंज़िल से तो यारो..दूरी ही भली।
जहाँ अपनों को रस्ते से हटाना पड़ता है।।
जाहिर है 'सागर' वो खफ़ा हो जायेगा।
सुखनवर हूँ , आईना दिखाना पड़ता है।।
सुबोध सागर
Subodh Shrivastava
मेरे घर की राह में इक थाना पड़ता है।।
जर्रा जर्रा वज़ूद नज़र आने लगता है।
जब झूठ बात पे झुक जाना पड़ता है।।
मैंने कभी गठरी भारी नही की अपनी।
हसरतों का बोझ खुद उठाना पड़ता है।।
जानता हूँ वो छुप छुपके बहुत रोता है।
जिसे सबके सामने मुसकाना पड़ता है।।
ये भी एक हकीकत है इस दुनिया की।
कभी---कभी खुद से टकराना पड़ता है।।
ऐसी मंज़िल से तो यारो..दूरी ही भली।
जहाँ अपनों को रस्ते से हटाना पड़ता है।।
जाहिर है 'सागर' वो खफ़ा हो जायेगा।
सुखनवर हूँ , आईना दिखाना पड़ता है।।
सुबोध सागर
Subodh Shrivastava
0 comments:
Post a Comment