पुन: प्रस्तुति:
मेरा बचपन (सत्य आधारित सृजन)
❣❣❣❣❣❣❣❣❣
पूछ रहे हो मेरा बचपन, कैसे तुम्हे बताऊँ मै
अपनी गाथा खुद ही बोलो, कैसे तुम्हे सुनाऊँ मै
यादों की सरिता मे बोलो, कितना मै बह पाऊँगा
जितना भी है याद उन्ही मे, थोड़ा सा कह पाऊँगा
घर दुकान या शहर मुहल्ला, सबकुछ छोटा छोटा था
जैसे तैसे घर चलता था, जेब खर्च का टोटा था
तीन मास्टर से सारा, स्कूल चलाया जाता था
और जमी पर हमे बिठाकर, रोज पढ़ाया जाता था
नही गया स्कूल अगर तो, कुछ बच्चे आ जाते थे
और पकड़कर जबरन मुझको, शाला तक ले जाते थे
पैसे कहाँ कोई देता था, घर से रोटी लाते थे
यहाँ वहाँ गर जाना हो तो, पैदल ही बस जाते थे
घर मे बिजली थी तो लेकिन, कभी कभी ही आती थी
छत पर सोते तो मच्छर की, दिक्कत बहुत सताती थी
छोटी बहना से तो मानो, छत्तिस का ही नाता था
और बड़ा जो भाई था वो, मुझको बहुत सताता था
बापू तो थोड़े सीधे थे पर, अम्मा डाटा करती थी
थोड़ी थोड़ी चीजों को भी, सबमे बाँटा करती थी
अगर खेलने जाऊँ तो फिर, भईया रोका करते थे
छोटी छोटी बातों पर भी, बापू टोका करते थे
बड़ा बुरा सा लगता था जब, ऐसा ये सब होता था
सच कहता हूँ कभी कभी तो, छिप छिप कर मै रोता था
किन्तु आज जब उस बचपन के, अर्थ समझ मे आते हैं
और नयन मे नीर स्वयं ही, जाने क्यूँ भर आते हैं
आज महल भी नही सुहाते, तब तो खण्डहर प्यारा था
अपने ही अब नही हैं अपने, तब तो गाँव हमारा था
🌹ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई
मेरा बचपन (सत्य आधारित सृजन)
❣❣❣❣❣❣❣❣❣
पूछ रहे हो मेरा बचपन, कैसे तुम्हे बताऊँ मै
अपनी गाथा खुद ही बोलो, कैसे तुम्हे सुनाऊँ मै
यादों की सरिता मे बोलो, कितना मै बह पाऊँगा
जितना भी है याद उन्ही मे, थोड़ा सा कह पाऊँगा
घर दुकान या शहर मुहल्ला, सबकुछ छोटा छोटा था
जैसे तैसे घर चलता था, जेब खर्च का टोटा था
तीन मास्टर से सारा, स्कूल चलाया जाता था
और जमी पर हमे बिठाकर, रोज पढ़ाया जाता था
नही गया स्कूल अगर तो, कुछ बच्चे आ जाते थे
और पकड़कर जबरन मुझको, शाला तक ले जाते थे
पैसे कहाँ कोई देता था, घर से रोटी लाते थे
यहाँ वहाँ गर जाना हो तो, पैदल ही बस जाते थे
घर मे बिजली थी तो लेकिन, कभी कभी ही आती थी
छत पर सोते तो मच्छर की, दिक्कत बहुत सताती थी
छोटी बहना से तो मानो, छत्तिस का ही नाता था
और बड़ा जो भाई था वो, मुझको बहुत सताता था
बापू तो थोड़े सीधे थे पर, अम्मा डाटा करती थी
थोड़ी थोड़ी चीजों को भी, सबमे बाँटा करती थी
अगर खेलने जाऊँ तो फिर, भईया रोका करते थे
छोटी छोटी बातों पर भी, बापू टोका करते थे
बड़ा बुरा सा लगता था जब, ऐसा ये सब होता था
सच कहता हूँ कभी कभी तो, छिप छिप कर मै रोता था
किन्तु आज जब उस बचपन के, अर्थ समझ मे आते हैं
और नयन मे नीर स्वयं ही, जाने क्यूँ भर आते हैं
आज महल भी नही सुहाते, तब तो खण्डहर प्यारा था
अपने ही अब नही हैं अपने, तब तो गाँव हमारा था
🌹ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई
0 comments:
Post a Comment