ग़ज़ल
न जाने क्या बखेड़ा हो, भरोसा क्या ज़माने का।
कहा आँखों ने आँखों से, किसी को ना बताने का।
सवब कुछ भी न हो, ये हो नहीं सकता मिरे यारा,
हवा पर तैरती तेरी महक हर रोज़ आने का।
तिरी जो याद है ज़ालिम, जगाती रात भर मुझको,
बहुत है मन मिरा, कोई नया सपना सजाने का।
अभी मौसम सुहाना है, अभी ये रूठना छोड़ो,
अभी हँस दो, किसी दिन और यारा रूठ जाने का।
ख़बर तेरी बिना नागा मिरे घर रोज़ आती है,
न जाने कौन देता है, पता इस आसियाने का।
अगर तू आ नहीं सकता मिरे दर तक, इशारा कर,
मुझे हर रास्ता मालूम है, तेरे ठिकाने का।
लगे है, जान लेकर ही रहेगा यार तू मेरी,
चला आता, तरीका रोज़ इक लेकर सताने का।
पलट के देखना तेरा, नशीली आँख से फिर-फिर,
लगे है यूँ , इरादा है ग़ज़ल ख़ुद पर लिखाने का।
बहुत ही आम सा इन्सान हूँ , मैं सच बताता हूँ ,
कहीं तू सोच ना बैठे, किसी ऊँचे घराने का।
कसक देता मगर मीठी, जगाता रात भर ज़ालिम,
अजूबा खेल ये कैसा, किसी से दिल लगाने का।
जिसे हर रोज़ रोना है, यही फितरत अगर उसकी,
बहाना खोज ही लेगा, यहाँ आँसू बहाने का।
सज़ा जो भी मिले मंजूर है, गर हो ख़ता मेरी,
नहीं हो गर ख़ता कोई, नहीं आँखें दिखाने का।
मिरी चाहत का तुझ पर कर्ज है बाकी बहुत सारा,
कभी मन हो चुकाने का, तो आने का, चुकाने का।
चमक आँखों की ये बतला रही है 'सिद्ध' को यारा,
यकीनन हो रहा, कुछ तो असर मेरे तराने का।
✏ठाकुर दास 'सिद्ध'दुर्ग (छत्तीसगढ़)
न जाने क्या बखेड़ा हो, भरोसा क्या ज़माने का।
कहा आँखों ने आँखों से, किसी को ना बताने का।
सवब कुछ भी न हो, ये हो नहीं सकता मिरे यारा,
हवा पर तैरती तेरी महक हर रोज़ आने का।
तिरी जो याद है ज़ालिम, जगाती रात भर मुझको,
बहुत है मन मिरा, कोई नया सपना सजाने का।
अभी मौसम सुहाना है, अभी ये रूठना छोड़ो,
अभी हँस दो, किसी दिन और यारा रूठ जाने का।
ख़बर तेरी बिना नागा मिरे घर रोज़ आती है,
न जाने कौन देता है, पता इस आसियाने का।
अगर तू आ नहीं सकता मिरे दर तक, इशारा कर,
मुझे हर रास्ता मालूम है, तेरे ठिकाने का।
लगे है, जान लेकर ही रहेगा यार तू मेरी,
चला आता, तरीका रोज़ इक लेकर सताने का।
पलट के देखना तेरा, नशीली आँख से फिर-फिर,
लगे है यूँ , इरादा है ग़ज़ल ख़ुद पर लिखाने का।
बहुत ही आम सा इन्सान हूँ , मैं सच बताता हूँ ,
कहीं तू सोच ना बैठे, किसी ऊँचे घराने का।
कसक देता मगर मीठी, जगाता रात भर ज़ालिम,
अजूबा खेल ये कैसा, किसी से दिल लगाने का।
जिसे हर रोज़ रोना है, यही फितरत अगर उसकी,
बहाना खोज ही लेगा, यहाँ आँसू बहाने का।
सज़ा जो भी मिले मंजूर है, गर हो ख़ता मेरी,
नहीं हो गर ख़ता कोई, नहीं आँखें दिखाने का।
मिरी चाहत का तुझ पर कर्ज है बाकी बहुत सारा,
कभी मन हो चुकाने का, तो आने का, चुकाने का।
चमक आँखों की ये बतला रही है 'सिद्ध' को यारा,
यकीनन हो रहा, कुछ तो असर मेरे तराने का।
✏ठाकुर दास 'सिद्ध'दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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