काले हैं हम तो काले पे तुम क्यू मरती हो
दूर हमी से रहकर भी प्यार हमी से करती हो
भेद भाव रखकर दिल में इतना क्यू इतराती हो
गली ना आऊं मै तेरे तो घर क्यू मेरे आती हो
मै ठहरा काला कौआ तुम भी सब्जी मंडी हो
मै जो लगता एक चुकन्दर तुम भी लगती भिन्डी हो
तुम कहती दूजे को खुद को खुद से पूछं लो
मै जो लगता काला कोयला तुम भी लगती कंडी हो
इस दुनिया में इस समाज हम सब एक समान हैं
किसी को पापी को किसी को काला, कहना खुद का अपमान है
दोष ढूंढना है खुद में ढूंढो , तब तुमको मालूम पड़ेगा
बहार से जो दिखता काला, दिल से वो इंसान मिलेगा I
कवि नदीम जगदीशपुरी
8795124923
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