क रचना जीव और जीवन को
परिभाषित करती हुई आप सब को सादर समर्पित है :
...........................................
हम ऐसे खोटे सिक्के हैं
कभी चले कभी तो नहीं चले.......।
निर्धन के चूल्हे जैसे है ;
कभी जले कभी तो नही जले .....।।
जीवन इक खेल तमाशा है
कभी आशा कभी निराशा है......।
निर्गुण ,सगुण "अभिन्न ज्योति "
बस एक प्रेम की भाषा है .........।
"झबरी पिलिया" के पिल्ले भी ;
कभी पले कभी तो नहीं पले ....।।
(हम ऐसे खोटे सिक्के हैं .......,,.)
हरसिंगार की बेल रोज़
फूलों की झडी लगाती है.......।
घूमती गेंद पर बैठ "चिरैया"
चींव-चींव चिल्लाती है .........।
"अधखारे पानी" में दालें;
कभी गलें कभी तो नहीं गलें। ।
( हम ऐसे खोंटे सिक्के हैं...........)
सोंचो उनकी जो बाग़ सजाए
बैठे हैं बस गमलों में ..........।
देखो उनको जो खड़े अडिग ;
अबिचल नित "तम् के हमलों "मे..।
नौसिखियों से मिट्टी के घड़े ;
कभी ढले कभी तो नहीं ढले ...।।
( हम ऐसे खोंटे सिक्के हैं ...,,,,,...)
मुकेश शुक्ल
परिभाषित करती हुई आप सब को सादर समर्पित है :
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हम ऐसे खोटे सिक्के हैं
कभी चले कभी तो नहीं चले.......।
निर्धन के चूल्हे जैसे है ;
कभी जले कभी तो नही जले .....।।
जीवन इक खेल तमाशा है
कभी आशा कभी निराशा है......।
निर्गुण ,सगुण "अभिन्न ज्योति "
बस एक प्रेम की भाषा है .........।
"झबरी पिलिया" के पिल्ले भी ;
कभी पले कभी तो नहीं पले ....।।
(हम ऐसे खोटे सिक्के हैं .......,,.)
हरसिंगार की बेल रोज़
फूलों की झडी लगाती है.......।
घूमती गेंद पर बैठ "चिरैया"
चींव-चींव चिल्लाती है .........।
"अधखारे पानी" में दालें;
कभी गलें कभी तो नहीं गलें। ।
( हम ऐसे खोंटे सिक्के हैं...........)
सोंचो उनकी जो बाग़ सजाए
बैठे हैं बस गमलों में ..........।
देखो उनको जो खड़े अडिग ;
अबिचल नित "तम् के हमलों "मे..।
नौसिखियों से मिट्टी के घड़े ;
कभी ढले कभी तो नहीं ढले ...।।
( हम ऐसे खोंटे सिक्के हैं ...,,,,,...)
मुकेश शुक्ल
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