क्या यही हमारा रस्ता है
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
क्या यही हमारी मंजिल थी, क्या यही हमारा रस्ता है
कैसे हम कह पाते हैं कि, दिल मे भारत बसता है
नेह ढूँढते रहते हैं हम, पायल की झँकारों मे
किन्तु कुटिलता भरी हुई है, अपने मौन विचारों मे
संस्कार की बातें यूँ तो, हमको बहुत लुभाती हैं
किन्तु हृदय से अमल करें, क्या बात समझ मे आती है
स्वार्थ परस्ती मे बोलो अब, मानव मूल्य कहाँ बच पाए
मानव तो कहलाते हैं पर, मानवता हम कब रच पाए
नारी के शोषण पर बोलो, क्या आँखें नम होती हैं
भूखे नंगे बच्चों पर क्या, अपनी आँखें रोती हैं
घर के बड़े बुजुर्गों पर भी, हमको तरस नही आता
अग्रज और अनुज का भी तो, हमको चैन नही भाता
और वतन की खातिर बोलो, हमने क्या बलिदान किया
किसकी खातिर हमने बोलो, तन मन धन कुर्बान किया
मान प्रतिष्ठा बल वैभव के, हम तो इतने कायल हैं
मानवता भी कुंठित है फिर, संस्कार भी घायल है
आतंकी परिभाषा को हम, बोलो कब पढ़ पाए हैं
और वतन के नाम पे बोलो, कितने पुष्प चढ़ाए हैं
जर जमीन या सोना चाँदी, कागज के नोट सुहाते हैं
अधिकार सहित ऊँची कुर्सी के, हमको लोभ लुभाते हैं
पैसों के चक्कर मे बोलो, इतने क्यूँ मजबूर हुए
गैरों की तो बात छोड़ दो, हम अपनो से दूर हुए
मन बेचा मनमंथन बेचा, फिर हमने क्या पाया है
सोचो समझो मनन करो क्या, सही मार्ग अपनाया है
आज हमारी करतूतों पर, सारा जग ही हँसता है
क्या यही हमारी मंजिल थी, क्या यही हमारा रस्ता है
बीत गई सो बीत गई अब, पछताने से क्या होगा
रात अंधेरी शमा बुझी है, परवाने से क्या होगा
आओ उठें और हम फिर से, दीपक नया जलाएं
अपना और वतन का वैभव, फिर रौशन कर जाएं
🌹रचयिता:बबुआ
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क्या यही हमारी मंजिल थी, क्या यही हमारा रस्ता है
कैसे हम कह पाते हैं कि, दिल मे भारत बसता है
नेह ढूँढते रहते हैं हम, पायल की झँकारों मे
किन्तु कुटिलता भरी हुई है, अपने मौन विचारों मे
संस्कार की बातें यूँ तो, हमको बहुत लुभाती हैं
किन्तु हृदय से अमल करें, क्या बात समझ मे आती है
स्वार्थ परस्ती मे बोलो अब, मानव मूल्य कहाँ बच पाए
मानव तो कहलाते हैं पर, मानवता हम कब रच पाए
नारी के शोषण पर बोलो, क्या आँखें नम होती हैं
भूखे नंगे बच्चों पर क्या, अपनी आँखें रोती हैं
घर के बड़े बुजुर्गों पर भी, हमको तरस नही आता
अग्रज और अनुज का भी तो, हमको चैन नही भाता
और वतन की खातिर बोलो, हमने क्या बलिदान किया
किसकी खातिर हमने बोलो, तन मन धन कुर्बान किया
मान प्रतिष्ठा बल वैभव के, हम तो इतने कायल हैं
मानवता भी कुंठित है फिर, संस्कार भी घायल है
आतंकी परिभाषा को हम, बोलो कब पढ़ पाए हैं
और वतन के नाम पे बोलो, कितने पुष्प चढ़ाए हैं
जर जमीन या सोना चाँदी, कागज के नोट सुहाते हैं
अधिकार सहित ऊँची कुर्सी के, हमको लोभ लुभाते हैं
पैसों के चक्कर मे बोलो, इतने क्यूँ मजबूर हुए
गैरों की तो बात छोड़ दो, हम अपनो से दूर हुए
मन बेचा मनमंथन बेचा, फिर हमने क्या पाया है
सोचो समझो मनन करो क्या, सही मार्ग अपनाया है
आज हमारी करतूतों पर, सारा जग ही हँसता है
क्या यही हमारी मंजिल थी, क्या यही हमारा रस्ता है
बीत गई सो बीत गई अब, पछताने से क्या होगा
रात अंधेरी शमा बुझी है, परवाने से क्या होगा
आओ उठें और हम फिर से, दीपक नया जलाएं
अपना और वतन का वैभव, फिर रौशन कर जाएं
🌹रचयिता:बबुआ
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