कविता.....
मन की पीड़ा हरदम कहती
साँसे अंदर घुटती रहती
अंहकार के मोह पास में
मानव के दंभ नुकीले
हे गम के साधक गरल तू पी ले....
छद्म भेष को धारण करता
पीर किसी की कभी न हरता
बहुरूपिये का पहन मुखोटा
प्रेम के बंधन रखता ढीले
हे जग के मानव गरल तू पी ले
आतम का तू सार न जाने
मोही जीवन स्वारथ पाने
जीवन के रंग रास रचाकर
खेले है सब खेल रंगीले
हे ज्ञानी प्राणी गरल तू पी ले...
गरल =अंहकार रुपी जहर
सरिता सिंघई कोहिनूर
मन की पीड़ा हरदम कहती
साँसे अंदर घुटती रहती
अंहकार के मोह पास में
मानव के दंभ नुकीले
हे गम के साधक गरल तू पी ले....
छद्म भेष को धारण करता
पीर किसी की कभी न हरता
बहुरूपिये का पहन मुखोटा
प्रेम के बंधन रखता ढीले
हे जग के मानव गरल तू पी ले
आतम का तू सार न जाने
मोही जीवन स्वारथ पाने
जीवन के रंग रास रचाकर
खेले है सब खेल रंगीले
हे ज्ञानी प्राणी गरल तू पी ले...
गरल =अंहकार रुपी जहर
सरिता सिंघई कोहिनूर
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