ग़ज़ल
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कहीं राम बेचे, कहीं काम बेचे
सियासत ने जमकर बड़े नाम बेचे
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सियासत है की और इल्जाम बेचे
मेरे ख्वाब उसने बिना दाम बेचे
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बड़े मंच उसने सजाये बराबर,
शिकायत के तोहफे सरेआम बेचे।
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नहीं मानता कुछमुहब्बत वफा को
मिलें दाम उसको तो हर गाम बेचे
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पुराने थे मँहगे नहीं बेच पाया,
गया मैक़दे में नये जाम बेचे।
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सभी एक ताजिर मुझे जानते हैं,
सजाकर दुकां में जो आराम बेचे।
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हमीद कानपुरी
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कहीं राम बेचे, कहीं काम बेचे
सियासत ने जमकर बड़े नाम बेचे
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सियासत है की और इल्जाम बेचे
मेरे ख्वाब उसने बिना दाम बेचे
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बड़े मंच उसने सजाये बराबर,
शिकायत के तोहफे सरेआम बेचे।
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नहीं मानता कुछमुहब्बत वफा को
मिलें दाम उसको तो हर गाम बेचे
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पुराने थे मँहगे नहीं बेच पाया,
गया मैक़दे में नये जाम बेचे।
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सभी एक ताजिर मुझे जानते हैं,
सजाकर दुकां में जो आराम बेचे।
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हमीद कानपुरी
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